Thursday, December 17, 2009

समय की अदालत में



क्षमा कर देना हमको
ओ समय !
हमारी कायरता, विवशता, निर्लज्जता के लिये
हमारे अपराध के लिये
कि बस जी लेना चाहते थे हम
अपने हिस्से की गलीज जिंदगी
अपने हिस्से की चंद जहरीली साँसें
भर लेना चाहते थे अपने फेफड़ों मे
कुछ पलों के लिये ही सही
कि हमने मुक्ति की कामना नही की
बचना चाहा हमेशा
न्याय, नीति, धर्म की परिभाषाओं से
भागना चाहा नग्न सत्य से.

कि हम अपने बूढे अतीत को
विस्मृति के अंधे कुँए मे धकेल आये थे
अपने नवजात भविष्य को गिरवी रख दिया था
वर्तमान के चंद पलों की कच्ची शराब पी लेने के लिये,
बॉटम्स अप !
कि हम बस जी लेना चाहते थे
अपने हिस्से की हवा
अपने हिस्से की जमीन
अपने हिस्से की खुशी
नहीं बाँटना चाहते थे
अपने बच्चों से भी

कि हम बड़े निरंकुश युग मे पैदा हुए थे
ओ समय
उस मेरुहीन युग में
जहाँ हमें आँखें दी गयी थीं
झुकाये रखने के लिये
इश्तहारों पर चिपकाये जाने के लिये
हमें जुबान दी गयी थी
सत्ता के जूते चमकाने के लिये
विजेता के यशोगान गाने के लिये
और दी गयी थी एक पूँछ
हिलाने के लिये
टांगों के बीच दबाये रखने के लिये

कि जिंदगी की निर्लज्ज हवस मे हमने
चार पैरों पर जीना सीख लिया था
सीख लिया था जमीन पर रेंगना
बिना मेरु-रज्जु के
सलाखों के बीच रहना,
कि हमें अंधेरों मे जीना भाता था
क्योंकि सीख लिया था हमने
निरर्थक स्वप्न देख्नना
जो सिर्फ़ बंद आँखों से देखे जा सकते थे
हमें रोशनी से डर लगने लगा था
ओ समय !

जब हमारी असहाय खुशियाँ
पैरों मे पत्थर बाँध कर
खामोशी की झील मे
डुबोयी जाती थीं,
तब हम उसमे
अपने कागजी ख्वाबों की नावें तैरा रहे होते थे

ओ समय
ऐसा नही था
कि हमें दर्द नही होता था
कि दुःख नही था हमें
बस हमने उन दुःखों मे जीने का ढंग सीख लिया था
कि हम रच लेते थे अपने चारो ओर
सतरंगे स्वप्नो का मायाजाल
और कला कह देते थे उसे
कि हम विधवाओं के सामूहिक रुदन मे
बीथोवन की नाइन्थ सिम्फनी ढूँढ लेते थे
अंगछिन्न शरीरों के दृश्यों मे
ढूँढ लेते थे
पिकासो की गुएर्निक आर्ट
दुःख की निष्ठुर विडम्बनाओं मे
चार्ली चैप्लिन की कॉमिक टाइमिंग
और यातना के चरम क्षणों मे
ध्यान की समयशून्य तुरीयावस्था,
जैसे श्वान ढूँढ़ लेते हैं
कूड़े के ढेर मे रोटी के टुकड़े;

कि अपनी आत्मा को, लोरी की थपकियाँ दे कर
सुला दिया था हमने
हमारे आत्माभिमान ने खुद
अपना गला घोंट कर आत्महत्या कर ली थी

हम भयभीत लोग थे
ओ समय !
इसलिये नही
कि हमें यातना का भय था,
हम डरते थे
अपनी नींद टूटने से
अपने स्वप्नभंग होने से हम डरते थे
अपनी कल्पनाओं का हवामहल
ध्वस्त होने से हम डरते थे,
उस निर्दयी युग मे
जब कि छूरे की धार पर
परखी जाती थी
प्रतिरोध की जुबान
हमें क्रांति से डर लगता था
क्योंकि, ओ समय
हमें जिंदगी से प्यार हो गया था
और आज
जब उसकी छाया भी नही है हमारे पास
हमें अब भी जिंदगी से उतना ही प्यार है

हाँ
हमे अब भी उस बेवफ़ा से उतना ही प्यार है !



(हिंद-युग्म पर पूर्वप्रकाशित)

(चित्र: गुएर्निका-पिकासो)

Wednesday, November 25, 2009

और वक्त के साथ...


हाँ
वह भी कोई वक्त ही हुआ करता था
जब तुम्हारे इंतजार की राह पर दौड़ती
मेरी मासूम बेसब्री के
नाजुक पाँवों मे चुभ जाते थे
घड़ी की सुइयों के नुकीले काँटे
और जब
पाँव के छालों की थकान से रिसते
नमकीन आँसू हमारी रातों को जगाये रखते थे

वह भी कोई रातें हुआ करती थीं
जब कि हम
एक जोड़ी खाली हाँथों को
एक जोड़ी खाली जेबों के हवाले कर
अपने पैरों की जवाँ थकान
आवारा सड़कों के नसीब मे लिख देते थे
और
रात के काँपते गीले होठों पर
फ़ड़फ़ड़ा कर बैठ जाता था
कोई नाम

वह भी कोई शामें हुआ करती थीं
कि न हो कर भी
तुम मेरे इतने करीब हुआ करते थे
कि वक्त एक शरारती मुस्कान दाँतो तले दबाते हुए
’एक्स्क्यूज़ मी’ कह कर
कमरे से बाहर निकल जाता था
दबे पाँव

हाँ
वह भी कोई मौसम हुआ करता था
जब दिल की जेबें तुम्हारी यादों से
हमेशा भरी रहती थीं
और तुम्हारे अनलिखे खतों की खुशबू
हमारी रातों को रातरानी बना देती थी

और
जब किसी को प्यार करना
हमें दुनिया का सबसे जरूरी काम लगता था

मगर तब से
कितना पानी बह गया
मेरे पुल के साये को छू कर

और दुनिया की भरी-पूरी भीड़ मे
उसी गिरहकट वक्त ने काट ली
तुम्हारी यादों से भरी मेरे दिल की जेब
और मैं अपना चेहरा
किन्ही आइने जैसी शफ़्फ़ाक दो आँखों मे
रख कर भूल गया हूँ

अब
रात-दर-रात
मेरी पैनी होती जरूरतें
मेरे पराजित ख्वाबों का शिकार करती जाती हैं
और सुबह-दर-सुबह
मेरे पेट की आग जलाती जाती है
तुम्हारे अनलिखे खुशबूदार खत

और अब
जबकि जिंदगी के शर्तनामे पर
मैने अपनी पराजय के दस्तख़त कर दिये हैं
मैं तुम को हार गया हूँ
और अपने कन्धों पर
जिंदगी का जुँआ ढोने के बाद
मेरी थकी हुई शामें
भूलती जाती हैं
तुम्हारा नाम
हर्फ़-दर-हर्फ़

और घड़ी के नुकीले काँटे
जो कभी तुम्हारे इंतजार की राह पर दौड़ती
मेरी मासूम बेसब्री के
नाजुक पाँवों मे चुभ जाते थे
अब मेरी जरूरतों के पाँच-साला ’टाइमटेबल’ को
’पिन’ करने के काम आते हैं.
....
और खुदगर्ज वक्त
’विलेन’ सा हँसता रहता है.



(चित्र: पैरानोइया-सल्वाडोर डॉली)

Friday, October 30, 2009

बवालों सी रातें


फ़सादों से दिन हैं, बवालों सी रातें
जवानी की सरकश मिसालों सी रातें


अदद नौकरी की फ़िकर मे कटा दिन
कटें कैसे, भूखे सवालों सी रातें


उजालों मे झुलसे नजर के शज़र जब
बनी हम-सफ़र, हमखयालों सी रातें


जो खिलता अगर तेरी कुर्बत का चंदा
निखर जातीं दिन के उजालों सी रातें


हो जायेगी सूनी
ये महफ़िल भी इक दिन
रहेंगी बची, प्यासे प्यालों सी रातें


ये शाम-ओ-सहर का हटाओ भी परदा
खिलें दिन मे, शर्माये गालों सी रातें


बिखर जायें छन-छन, सितारे फ़लक पे
खुलें जब, तेरे काले बालों सी रातें


गम-ए-बेवफ़ाई, फिर उस पे ’रिसेशन’
दिवानों की निकलीं दिवालों सी रातें



(सरकश- ढीठ, विद्रोही; शजर- वृक्ष; कुर्बत- साथ, निकटता )

(हरकीरत जी और गौतम साहब की सलाह पर संशोधित)

Monday, October 12, 2009

त्रिवेणी-नुमा - १

तेरी पहचान के रैपर्स उड़ा दिये हवा में, हँस कर
वक्त ने तेरे नाम की टॉफ़ी, फिर लबों पे रख ली है

मेरी नाकामियों मुबारक हो, बस वो भी पिघल जायेगी

*****

बचपन में, मेले से, लाया था एक मिट्टी की गुल्लक
रोज डालता था कुछ सिक्के, भरता था छोटी सी गुल्लक

भरते-भरते पैसे, जाने कब खाली कर दी उम्र की गुल्लक

*****

कहते हैं सिकुड़ के माउस बराबर रह गयी है बेचारी दुनिया
इंटरनेट, केबल, मोबाइल्स ने खत्म कर दी हैं सारी दूरियाँ

हाँ, तेरा दिल ही छूट गया होगा शायद, नेटवर्क कवरेज से बाहर

*****

(क्षेपक)

बुद्धत्व

पागल ही तो है
वह आवारा कवि
बेचैन हरदम, भावुक
जो पढ़ लेता है कुछ बुरी कविताएं
और उदास हो जाता है
देखता है कुछ बुरे उज़बक ख्वाब
और रो देता है
कैसे समझाऊँ उसे
कि रोना कितना तक़लीफ़देह होता है
और दिल ही दिल मे घुटना
सेहत के लिये कितना नुकसानदायक
कैसे बताऊँ उसे
कि यह जिंदगी भी बस
एक ख्वाब ही तो है;

वो देखता है कुछ मेरी आँखों मे
और फिर उदास हो जाता है
मुंह फ़िरा लेता है
क्या पता है उसे यह सब ?
मगर
मगर अब आँसू मेरी आँखों मे क्यों
या..
शायद टूटने वाली है क्या
मेरी भी नींद ?

( यह पोस्ट हमारे प्यारे दोस्त और बेहद उम्दा कवि दर्पण साहब को समर्पित )

Thursday, October 8, 2009

बेगुनाह होने के गुनाह मे

हाँ
इस सतरंगी, खूबसूरत ख़्वाबों वाली
खुदगर्ज़ दुनिया से
बस ढेला भर की दूरी पर ही
सफ़ेद कालर वाले आदमखोर अँधेरे ने
उस भदेस, निरीह बस्ती पर ढाये थे
पुलिसिया जुर्म,
हाँ
वहीं कहीं पर था
रात के ग़लीज़ गुनाहों का गवाह
एक डरा हुआ दश्त
जिसका गला काट कर उन्होने
उसकी लाश पर उगा दिया था
एक विद्रूप सा ठूँठों का शहर;

वहीं कहीं पर
कुछ लपलपाती लंपट जुबानों ने
कुछ पैने हिंसक नाखूनों ने
कुछ लोहे के सख्त हाँथों ने
दबोच लिया था
एक अशक्त, बूढ़े मौसम की
इकलौती, जवान हवा को,
वहीं कहीं पर
उन्होने गला घोंट कर की थी
एक मासूम चीख की भ्रूणहत्या;

हाँ
यहीं पर
कुछ सुलगते शब्दों को
सेंसर के सींखचे मे ठूँसा गया था,
यहीं पर
कुछ जवान बगावती ख्वाबों को
आँखों की देहलीज से
ताउम्र जलावतन कर दिया गया था,
यहीं पर
एक पागल कलम की रगों मे
रोशनाई की बजाय जहर भरा गया था,
यहीं पर
ज़मीन की कोख़ मे
बारूद बो कर बंजर कर दिया गया था,
यहीं पर
कुछ गुमनाम शख़्सों को
लटकाया गया था
लोहे की सख़्त सलीबों पर
जिनकी जुबान ने
पालतू होने से इनकार कर दिया था

इसी जगह पर
बेरहम, बहरे बूटों ने
बेजुबान, अधेड़ पीठों पर
कायम की थी
एक नृशंस सल्तनत,
इसी जगह पर
एक समूची भाषा को
जिन्दा दफ़्न कर दिया गया था
आदिम होने के अपराध में,
इसी जगह पर
कुछ ज़मीनी खुदाओं की बलि दी गयी थी
किन्ही आसमानी ख़ुदाओं के नाम पर,
इसी जगह पर
माज़ी के एक पुराने पुल को
जला दिया गया था
कि एक अजन्मे कल को
कभी न दिखें
एक मृतप्राय कल के
रक्तरंजित पदचिह्न
किसी अंधी नैतिकता के
कोमल पाँवों मे न चुभें
सच के काँटे;

हाँ
यहीं
इसी जगह पर
एक पूरी सभ्यता को
असभ्य होने के अपराध में
बेगुनाह होने के गुनाह मे
दे दिया गया था
मृत्युदंड.

मगर हाँ
इसी जगह पर
कल

बारूद की पकी फ़स्लों मे
आग के सुर्ख फूलों को
खिलना है,
इसी जगह पर
कल
रात की कोख से
रोशनी के किसी बीज को
आग-हवा-पानी-मिट्टी पा कर
अखुँआना है
बनना है
कल का तिमिरनाशी, सुलगता सूरज,
इसी जगह पर
कल
लोहे की सख़्त सलीबों पर लटके
कुछ गुमनाम शख़्सों को
बनना है
मुस्तक़बिल का मसीहा ।

Friday, September 25, 2009

मैं खुद से बातें करता हूँ


कितने दिन के बाद मिला हूँ
मैं खुद से बातें करता हूँ

तेरा हाल मुझे मालुम है
तू बतला, अब मैँ कैसा हूँ

मैं तन्हा घर से निकला था
रात ढले तन्हा लौटा हूँ

टूट गया आईना दिल का
अब घर में तन्हा रहता हूँ

फटी जेब है होश हमारा
सिक्का हूँ खुद खो जाता हूँ

कब्र बदन की और तन्हाई
मैं बच्चे सा सो जाता हूँ

ख्वाब़ हैं या बस दीवारें हैं
क्या शब भर देखा करता हूँ

बिना पते के ख़त जैसा मैं
क्यूँ दर-दर भटका करता हूँ

मेला-झूला-जादू, दुनिया
बच्चा हूँ मैं, खो जाता हूँ

दर्द है या दीवानापन है
हँसते-हँसते रो पड़ता हूँ

दिल के भीतर सर्द अँधेरा
मैं तुझको ढूँढा करता हुँ

भूल गया बाजार मे मुझको
मैं तेरे घर का रस्ता हूँ


(यह रचना प्रख्यात शायर मरहूम नासिर काज़मी साहब को समर्पित है)

Saturday, September 19, 2009

पहाड़ को नही पता

पहाड़ की असीम उँचाइयों को
बदलते मौसमों की खबर नही होती

पहाड़ को उँचाई से ज़मीन पर कुछ नही दिखता
न पेड़ न इंसान
न फूल न भगवान.
दुनिया से कोई मतलब भी नही रहता पहाड़ को
कपड़े बदलती रहती है दुनिया
बेखबर रहता है पहाड़
कभी थक के जो करवट भी ले लेता है पहाड़
थोड़ी सी और बदल जाती है दुनिया
और पहाड़ को फिर पता नही चलता.

और पहाड़ के तले
छोटे इंसान
अपने छोटे-छोटे सुख और छोटे-छोटे दुःख
जी लेते हैं
अपनी छोटी ज़िंदगी मे
और मर जाते हैं
कोई छोटी मौत
अचल खड़ा रहता है पहाड़.

वक्त ठहर जाता है
पहाड़ की निर्जन चोटियों पर
किसी भटके हुए
अभिशप्त बादल के टुकड़े के मानिंद.
कोई रास्ता नही जाता
पहाड़ के उस पार.

पहाड़ के सीने मे बेचैन साँस सी
उलझ-उलझ जाती है
हाँफ़ती, थकी-माँदी हवा
पहाड़ के जर्जर फेफ़डों मे
कफ़ के थक्के सा ठहर जाता है
एक सख़्त सा पथरीला मौसम.

न जाने किसने
पहाड़ के गले मे खूंटे सा
बाँध दिया है एक सूरज,
दिन भर चक्कर काटता है
पहाड़ के चारो ओर
बैल की तरह,
चुप खड़ा रहता है पहाड़
एड़ियों पर उचकता सुबह का सूरज
क्या देख पाता होगा पहाड़ के पार का अँधेरा?

किसी को नही दिखते
पहाड़ के कलेजे मे छुपे
पहाड़ से मूक दुःख
पहाड़ पर बारिश की तरह.
कितनी गुफ़ाओं मे
सदियों पुराना खोखला अंधेरा
छुपाये रहता है पहाड़,
हाँ, शायद कभी
रात में चीखता हो पहाड़
और खुद से ही टकरा कर
वापस आ जाती हो चीख
उसके पास
गूँजती हुई.
या शायद नदियाँ गवाह होती हों
पहाड़ के फूट-फूट कर रोने की
फिर क्यों छोड देती हैं वो
पहाड़ को
उदास, अकेला !

पत्थर, बर्फ़ और पानी से बनी होती है
पहाड़ की किस्मत.

पहाड़ का कोई दोस्त नही होता है
कोई पहाड़ के कंधे पर
सर रख कर नही रोता है
किससे अपना सुख-दुःख
बाँटता होगा पहाड़?

पहाड़ जैसे लोगों के लिये भी
जिंदगी क्या पहाड़ सी नही हो जाती होगी?

Friday, September 11, 2009

बहते पानी पे तेरा नाम लिखा करते हैं

बहते पानी पे तेरा नाम लिखा करते हैं
लब-ए-खा़मोश का अंजाम लिखा करते हैं

कितना चुपचाप गुजरता है मौसम का सफ़र
तन्हा दिन और उदास शाम लिखा करते हैं

काश, इक बार तो वो ख़त की इबारत पढ़ते
अपनी आँखों मे सुबह-ओ-शाम लिखा करते हैं

लब-ए-बेताब की यह तिश्नगी मुक़द्दर है
अश्क बस बेबसी का जाम लिखा करते हैं

जमाने से सही, उनको पर खबर तो मिली
इश्क़ मे रुसबाई को ईनाम लिखा करते हैं

रात जलते हैं, सहर होती है बुझ जाते हैं
हम सितारों को दिल-ए-नाक़ाम लिखा करते हैं

कभी हम खुद से बिना बात रूठ जाते हैं
कभी खुद को ही ख़त गुमनाम लिखा करते हैं

लौट भी आओ, अब तन्हा नही रहा जाता
जिंदगी तुझको हम पैगाम लिखा करते हैं.

Sunday, September 6, 2009

इस क्षण का दाह

जब तेरे होठों के सुर्ख अंगारों पे
छा जाते हैं
मेरे होठों के नर्म बादल
जब तेरी आँखों की आँच को
ढक लेते है
मेरे अक्स के ठंडे साये
जब पिघल जाता है
मेरी खामोशी का बेचैन आसमान
मुझमें

जब खो जाते हैं
सारे शब्द
सारी दिशायें,
सारे संत्रास
अगम शून्य मे

तब
हमारे होठों के बीच
पलता है
एक अव्यक्त पारदर्शी मौन
तब
तुम्हारी आँखों के जल मे
डूब जाता हूं मैं
थके सूर्य सा
तब
साँझ से रंग बदलते हैं
तुम्हारी आँखों मे
उभरते हैं बिम्ब, स्वप्न से,
फिर पिघल जाते हैं
सप्तवर्णी स्वर्ण में

तब
जी लेते हैं हम
तोड कर समय-बन्धन
एक पल, एक प्रहर, एक वर्ष,
एक शती
एक युग
एक कल्प
एक क्षण मे

क्या समय के उस पार भी है कोई
इच्छाओं का आकाश
जिसमे समा जाये
मेरी सारी अत्रप्ति
आकुलता
अपराध !

दे दो मुझे
अदम्य दुःखों की धरा
मत छीनो मुझसे
मेरा क्षण भर का स्वप्नाकाश
ले लो
मेरे सारे सुखोँ की उम्र
मत छीनो मुझसे
इस क्षण का दाह
इस क्षण का ताप
जल जाने दो मुझे
क्षण भर की अग्नि मे

जी लेने दो
इस एक पल में
बस
फिर मर जाने दो
मुझे.

Wednesday, September 2, 2009

तेरी खु़शबू की इक गली

कुछ मेरे ख़याल का आवारापन,
कुछ तेरी याद मनचली तो थी

कुछ तो आँखों मे दर्द था गहरा,
कुछ लबों पर हँसी खिली तो थी

मैं फ़रेब-ए-निगाह समझा था,
राह मे एक खुशी मिली तो थी

फ़लक से टूटा वो तारा न मिला,
रात आँखों मे ही ढली तो थी

ख्वाहिशों के बुझे चिरागों में,
रूह शब भर मेरी जली तो थी

मेरी साँसों के शहर मे जि़न्दा,
तेरी खु़शबू की इक गली तो थी

तेरी आँखों को नदी होना था,
प्यास लब पर मेरे पली तो थी

थक गया कारवाँ साँसों का,
मंजिल की झलक मिली तो थी.

Monday, August 31, 2009

आत्मकथ्य

अपनी ही अगाध गहराइयों में
खामोश, डूब जाता है समन्दर,
ठंडे निर्जीव शिखरों पर
अपने एकाकी अमरत्व का अभिशाप
भोगता है
अकेला पहाड़,
खुद की ही
बेपनाह बेचैनी की तपिश मे
बरबस झुलस जाती है
बदहवास आग,
अपनी ही
अनजानी ख़्वाहिशों की
खुशबू की तलाश मे
अजनबी जंगलों की अंधी गलियों मे
आवारा भटकती रहती है हवा,
और आसमान
छुपाये रखता है
अपने अनंत विस्तार में
अपना अंतहीन खालीपन !

समंदर है
पहाड़ है
है आग, हवा
और आसमान
और
मैं हूँ
इन सब से बना
इन सब में बसा
अपनी हदों में
अपने वजूद को तलाशता
मैं
ऐ खुदा
इस बदन की
पथरीली चारदीवारियों मे कैद
धीरे-धीरे
पत्थर का हुआ जाता हूँ
मै
शायद कुछ-कुछ
तुम्हारी तरह

मिट्टी के जिस्म में
गहरे तक
पेवस्त हुई जाती हैं
मेरे वजूद की जड़ें.
पता नही कि
उखड़्ने का दर्द
जमीन को ज्यादा होता है
या जड़ों को !

क्यों है कोई
सिर्फ़ होने के लिये
कितने सवालों के सलीब
सराबों के अजनबी शहर मे
नामालुम सी तलाश
खुद की
मुट्ठी से फ़िसलती
साँसों की गर्म रेत
और मीलों लम्बी
काली रात

मैं
कायनात़् का क्षुद्रतम अंश
खुद कायनात का ख़ुलूद था
मैं था
समन्दर, पहाड़, आग,
हवा और आसमान
अब मुझमे है
खारी ख़ामोशी
अजर अकेलापन
बेपनाह बेचैनी
बेसबब भटकन
मुझमे है
अंतहीन खालीपन !
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